दिल्ली की अदालत ने अडानी समूह से जुड़ी रिपोर्टिंग पर लगे रोक आदेश को आंशिक रूप से रद्द किया

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नई दिल्ली | MP Jankranti News Desk | 19 सितम्बर 2025

अदानी समूह और स्वतंत्र पत्रकारों के बीच चल रहे मानहानि विवाद में बड़ा मोड़ आया है। दिल्ली की रोहिणी ज़िला अदालत ने 6 सितम्बर को जारी उस एकतरफा आदेश को रद्द कर दिया है, जिसके तहत चार पत्रकारों को अडानी समूह के खिलाफ रिपोर्टिंग करने से रोक दिया गया था। हालांकि, इसी आदेश को चुनौती देने वाले वरिष्ठ पत्रकार परंजॉय गुहा ठाकुरता की याचिका पर अभी फैसला सुरक्षित रखा गया है।

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अदालत का फैसला: पत्रकारों को सुनना ज़रूरी था

रोहिणी ज़िला अदालत के जज आशीष अग्रवाल ने पत्रकार रवि नायर, अबीर दासगुप्ता, आयुषकांत दास और अयुष जोशी की अपील पर सुनवाई करते हुए कहा कि –

“ये लेख लंबे समय से सार्वजनिक डोमेन में उपलब्ध थे। ऐसे में सिविल जज को आदेश देने से पहले पत्रकारों का पक्ष ज़रूर सुनना चाहिए था।”

जज ने साफ किया कि एकतरफा निषेधाज्ञा (Ex-Parte Injunction) के जरिए पुराने प्रकाशनों को हटाने का आदेश देना उचित नहीं था।

परंजॉय गुहा ठाकुरता की याचिका पर फैसला सुरक्षित

वरिष्ठ पत्रकार परंजॉय गुहा ठाकुरता ने भी निचली अदालत के आदेश को चुनौती दी है। उनकी ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता त्रिदीप पैस ने दलील दी कि अदालत ने यह बताए बिना आदेश पारित कर दिया कि आखिर कौन-सी पंक्ति मानहानिकारक है।

पैस ने कहा:

“यह आदेश इतना व्यापक (over-broad) है कि इसमें वादी को कुछ भी हटाने की छूट मिल जाती है। इससे सभी वेबसाइटों और स्वतंत्र पत्रकारों पर असर पड़ेगा।”

अदालत ने दोनों पक्षों की दलीलें सुनने के बाद फिलहाल फैसला सुरक्षित रख लिया है।

सरकार का कदम और पत्रकारों की आपत्ति

ध्यान रहे कि 16 सितम्बर को सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय ने दो मीडिया संस्थानों और कई यूट्यूब चैनलों को नोटिस भेजकर कुल 138 वीडियो और 83 इंस्टाग्राम पोस्ट हटाने का आदेश दिया था। यह आदेश उसी 6 सितम्बर के अदालती आदेश पर आधारित था।

इन नोटिसों में The Wire, Newslaundry, HW News, अजीत अंजुम, रवीश कुमार, ध्रुव राठी, आकाश बनर्जी (The Deshbhakt) जैसे बड़े पत्रकार और संस्थान शामिल थे।

कई पत्रकारों ने इसे मनमाना और प्रेस स्वतंत्रता पर हमला बताया।

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एडिटर्स गिल्ड और पत्रकारों की प्रतिक्रिया

  • एडिटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया ने कहा कि इस तरह के एकतरफा आदेश वैध रिपोर्टिंग पर रोक लगाने का खतरनाक उदाहरण हैं।
  • गिल्ड ने चेतावनी दी कि मंत्रालय द्वारा निजी कंपनी के दबाव में कंटेंट हटवाना अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए गंभीर खतरा है।
  • पत्रकार दीपक शर्मा ने कहा कि उनके 11 वीडियो बिना नोटिस और बिना पक्ष सुने हटवा दिए गए।
  • आकाश बनर्जी ने बताया कि उन्हें 200 से ज़्यादा कंटेंट 36 घंटे में हटाने का आदेश मिला, लेकिन विरोध करने का कोई मौका नहीं दिया गया।

बड़ा सवाल: लोकतंत्र या कॉर्पोरेट ताक़त?

यह पूरा मामला अब सिर्फ एक मानहानि विवाद नहीं रहा, बल्कि एक बड़े सवाल में बदल गया है:

  • क्या अदालतें और सरकार कॉर्पोरेट हितों की रक्षा के लिए प्रेस की स्वतंत्रता को दबा रही हैं?
  • क्या यह आदेश पत्रकारिता की साख और लोकतांत्रिक अधिकारों पर असर डालेगा?
  • या फिर सचमुच यह झूठी और अप्रमाणित रिपोर्टिंग को रोकने की एक ज़रूरी प्रक्रिया है?

रोहिणी अदालत के इस ताज़ा फैसले ने पत्रकारों को थोड़ी राहत ज़रूर दी है, लेकिन परंजॉय गुहा ठाकुरता की याचिका पर आने वाला फैसला अब लिटमस टेस्ट होगा। यह देखना अहम होगा कि अदालतें लोकतंत्र में प्रेस की आज़ादी को मज़बूत करती हैं या कॉर्पोरेट प्रतिष्ठा की रक्षा को प्राथमिकता देती हैं।

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