जनक्रांति न्यूज़ डेस्क | 17 सितम्बर 2025
भारत में हाल ही में एक ऐसा मामला सामने आया है, जिसने पत्रकारिता की स्वतंत्रता, अदालत की भूमिका और कॉर्पोरेट ताक़त – तीनों पर सवाल खड़े कर दिए हैं। गौतम अदाणी और अदाणी एंटरप्राइजेज लिमिटेड (AEL) के खिलाफ रिपोर्टिंग करने वाले स्वतंत्र पत्रकारों और मीडिया संगठनों के बीच चल रहा कानूनी विवाद गहरा गया है। दिल्ली की रोहिणी कोर्ट के 06 सितम्बर 2025 के आदेश में जहाँ पत्रकारों को अदाणी समूह के खिलाफ कथित “मानहानिकारक और अप्रमाणित सामग्री” हटाने का निर्देश दिया गया था, वहीं अब पत्रकारों ने उस आदेश को चुनौती देते हुए अपील दायर कर दी है।

कोर्ट का आदेश: कंटेंट हटाने का निर्देश
सीनियर सिविल जज अनुज कुमार सिंह ने Adani Enterprises Ltd. बनाम Paranjoy Guha Thakurta एवं अन्य मामले में कहा था कि:
- पत्रकारों और पब्लिशर्स को 5 दिन के भीतर “मानहानिकारक” सामग्री हटानी होगी।
- गूगल और मेटा जैसी इंटरमीडियरी कंपनियों को भी निर्देश दिया गया कि अदाणी द्वारा भेजे गए लिंक 36 घंटे के भीतर हटाएँ और 180 दिन तक रिकॉर्ड सुरक्षित रखें।
- भविष्य में पत्रकार कोई नया “झूठा या अप्रमाणित आरोप” अदाणी या उसके प्रोजेक्ट्स पर प्रकाशित नहीं करेंगे।
अदाणी का आरोप है कि इन रिपोर्टों से उनकी ब्रांड वैल्यू को नुकसान हुआ, प्रोजेक्ट्स प्रभावित हुए और निवेशकों को अरबों डॉलर का घाटा पहुँचा।

सरकार का नोटिस: 36 घंटे की डेडलाइन
11 सितम्बर को सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय (I&B) ने “Immediate Court Matter” शीर्षक से नोटिस जारी किया।
- मंत्रालय ने कहा कि कोर्ट आदेश का पालन नहीं हुआ है।
- इसलिए पत्रकारों और डिजिटल न्यूज़ प्लेटफॉर्म्स को 36 घंटे के भीतर कार्रवाई करने और रिपोर्ट देने का निर्देश दिया गया।
- यह आदेश गूगल और मेटा को भी भेजा गया।
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नोटिस में जिन पत्रकारों और प्लेटफ़ॉर्म्स का नाम है, उनमें शामिल हैं:
- Newslaundry
- अभिसार शर्मा
- ध्रुव राठी
- रवीश कुमार ऑफिशियल
- The Deshbhakt (आकाश बनर्जी)
- अजीत अंजुम
- HW News English
- The Wire
- Paranjoy Online
आदि।
यह पहली बार नहीं है जब सरकार ने सीधे डिजिटल मीडिया संस्थानों को कंटेंट हटाने का आदेश दिया हो, लेकिन इस मामले ने बहस को और तेज़ कर दिया है।

परांजय गुहा ठाकुरता का बयान
09 सितम्बर को पत्रकार परांजय गुहा ठाकुरता ने बयान जारी कर कहा:
- उनके खिलाफ यह अदाणी समूह की ओर से सातवाँ मानहानि केस है।
- उन्होंने कहा कि आरोप झूठे और बेबुनियाद हैं, और उनकी रिपोर्टिंग हमेशा तथ्य आधारित व जनहित में रही है।
- वे लगभग 50 साल से पत्रकारिता कर रहे हैं और 35 साल से PIB से मान्यता प्राप्त हैं।
- उन्होंने भरोसा जताया कि वे अदालत में अपनी दलील मजबूती से रखेंगे।
नया घटनाक्रम: पत्रकारों की अपील
अब इस आदेश को पत्रकारों ने चुनौती दी है।
- परांजय गुहा ठाकुरता ने अलग से अपील दायर की है।
- वहीं रवि नायर, अबीर दासगुप्ता, आयस्कांत दास और अयुष जोशी ने सामूहिक रूप से अपील दायर की है।
- अपील में कहा गया है कि उनके लेखों में Adani Enterprises Limited (AEL) का नाम तक नहीं है, बल्कि संदर्भ सिर्फ गौतम अदाणी या अदाणी ग्रुप का है।
- ठाकुरता की याचिका में कहा गया कि अदालत ने बहुत व्यापक (over-broad) आदेश पारित कर दिया, जिसमें यह स्पष्ट नहीं किया गया कि आखिर कौन-सा कंटेंट मानहानिकारक है।
इन अपीलों को जिला अदालत में दाख़िल किया गया है और अब आगे की सुनवाई वहीं होगी।
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कानूनी पहलू
- मानहानि कानून के तहत अगर किसी की साख को झूठी या दुर्भावनापूर्ण सूचना से नुकसान पहुँचे तो वह मुकदमा कर सकता है।
- Interim Injunction (अस्थायी आदेश) मुकदमे के अंतिम नतीजे से पहले अस्थायी रोक लगाता है।
- लेकिन जब यह आदेश ex parte (बिना पत्रकारों को सुने) जारी किया जाए, तो निष्पक्षता पर सवाल उठते हैं।
- संविधान पत्रकारों को स्वतंत्रता देता है, लेकिन यह स्वतंत्रता पूर्ण नहीं है। अगर रिपोर्टिंग सत्य और जनहित में है तो सुरक्षित है, लेकिन अगर वह झूठी या दुर्भावनापूर्ण साबित होती है तो दंडनीय है।

बड़ा सवाल: पत्रकारिता बनाम कॉर्पोरेट ताक़त
इस पूरे विवाद से जनता के सामने कई सवाल खड़े होते हैं:
या फिर यह सचमुच “मानहानि” और “झूठी रिपोर्टिंग” को रोकने का एक ज़रूरी कदम है?
क्या अदालत और सरकार का रुख कॉर्पोरेट समूहों के पक्ष में झुकता दिख रहा है?
क्या यह आदेश प्रेस की स्वतंत्रता और लोकतंत्र पर असर डालेगा?
क्या भारत में कॉर्पोरेट ताक़त अदालत और सरकार से मिलकर मीडिया को नियंत्रित कर रही है?
या फिर यह सचमुच झूठी और बदनाम करने वाली रिपोर्टिंग को रोकने की कोशिश है?

कॉर्पोरेट ताकत vs. प्रेस स्वतंत्रता
कानूनी तौर पर अदालत और मंत्रालय का दावा है कि वे “मानहानि रोकने” और “जनहित” की रक्षा कर रहे हैं। वहीं पत्रकारों और स्वतंत्र मीडिया का कहना है कि यह कदम आलोचनात्मक पत्रकारिता को दबाने का प्रयास है। यह मामला भारत में कॉर्पोरेट हितों और मीडिया स्वतंत्रता के बीच टकराव को उजागर करता है। क्या अदालतें और सरकार कॉर्पोरेट पक्ष में झुक रही हैं? हिंदनबर्ग जैसी वैश्विक रिपोर्ट्स के बाद यह आदेश प्रेस को चुप कराने का हथियार लगता है। X पर रवीश कुमार ने इसे व्यंग्यात्मक रूप से “अदाणी वीडियो टेकडाउन दिवस” कहा, जबकि समर्थक इसे “झूठी रिपोर्टिंग” रोकने का कदम मानते हैं।
अब देखना होगा कि जिला अदालत इस विवाद में कौन-सा रास्ता अपनाती है क्या प्रेस की स्वतंत्रता बचेगी या कॉर्पोरेट प्रतिष्ठा प्राथमिकता पाएगी। यह लोकतंत्र के लिए एक परीक्षा है—जहां सत्य बोलना अपराध न बने।

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