भारत में लंबे समय से “एक राष्ट्र, एक चुनाव” (One Nation, One Election) की अवधारणा पर बहस चल रही है। हाल ही में देवास (मध्य प्रदेश) में इस विषय पर एक प्रबुद्ध जन संगोष्ठी आयोजित हुई, जिसमें इंदौर के महापौर पुष्यमित्र भार्गव मुख्य वक्ता के रूप में शामिल हुए।
संगोष्ठी का आयोजन देवास के सांसद महेंद्र सिंह सोलंकी ने किया। इस दौरान भार्गव ने “एक राष्ट्र, एक चुनाव” के लाभ गिनाते हुए कहा कि यह विकसित भारत की ओर एक महत्वपूर्ण कदम है। वहीं, दूसरी ओर इसके आलोचक मानते हैं कि यह व्यवस्था भारतीय लोकतंत्र और सामाजिक विविधता के लिए खतरा भी बन सकती है।
भारत में एक साथ चुनाव कराने की अवधारणा नई नहीं है। देश में 1951 से 1967 तक लोकसभा और सभी राज्य विधानसभाओं के चुनाव एक साथ ही आयोजित किए जाते थे । हालांकि, बाद में इस व्यवस्था में बदलाव आया। हाल ही में, केंद्र सरकार ने इस विषय पर एक उच्च स्तरीय समिति का गठन किया था । इस समिति की रिपोर्ट को केंद्रीय मंत्रिमंडल ने स्वीकार कर लिया है, जिसमें 2034 तक इस योजना को लागू करने की रूपरेखा तैयार की गई है । यह पहल बार-बार होने वाले चुनावों से पड़ने वाले वित्तीय और प्रशासनिक बोझ को कम करने के उद्देश्य से शुरू की गई है।

समर्थन में तर्क
मुख्य वक्ता पुष्यमित्र भार्गव ने संगोष्ठी में कहा कि:
- प्रशासनिक दक्षता: बार-बार चुनाव आचार संहिता से बचकर सरकार विकास कार्यों पर ध्यान दे पाएगी।
- खर्च में कमी: चुनावों पर लगने वाले हजारों करोड़ रुपये की बचत होगी।
- सुव्यवस्थित शासन: एक स्थिर कार्यकाल मिलेगा जिससे नीतियों को लागू करना आसान होगा।
- लोकतंत्र की मजबूती: मतदाता और सरकार दोनों को बार-बार चुनावी थकान से छुटकारा मिलेगा।
लोकतंत्र के लिए खतरा: क्या ‘एक राष्ट्र, एक चुनाव’ मजबूत या कमजोर करेगा?
आलोचकों का तर्क है कि ‘एक राष्ट्र, एक चुनाव’ प्रणाली भारतीय लोकतंत्र की संघीय और बहुदलीय प्रकृति के विरुद्ध है। यह लोकसभा और विधानसभा चुनावों को एक साथ जोड़कर राष्ट्रीय मुद्दों को हावी कर देगा। इससे क्षेत्रीय मुद्दे, जो स्थानीय राजनीति के लिए महत्वपूर्ण होते हैं, पृष्ठभूमि में चले जाएंगे। इसका सीधा असर यह होगा कि मतदाता राष्ट्रीय नेताओं और बड़े दलों के एजेंडे से प्रभावित होंगे, जिससे क्षेत्रीय दलों और उनके द्वारा उठाए जाने वाले स्थानीय मुद्दों की अनदेखी हो सकती है।
उदाहरण के लिए, एक ही समय में चुनाव होने पर मतदाता राज्य के स्थानीय मुद्दों, जैसे पानी की कमी, सड़क निर्माण या शिक्षा की स्थिति के बजाय राष्ट्रीय सुरक्षा, अर्थव्यवस्था या बड़े राष्ट्रीय नेताओं की लोकप्रियता के आधार पर मतदान कर सकते हैं। यह लोकतंत्र के विकेंद्रीकरण के सिद्धांत के खिलाफ है, जहाँ स्थानीय सरकारें और विधानसभाएं लोगों की जरूरतों को सीधे संबोधित करती हैं।
क्षेत्रीय दलों पर प्रभाव: क्या क्षेत्रीय आवाजें शांत हो जाएंगी?
भारत जैसे विशाल और विविधतापूर्ण देश में क्षेत्रीय दल स्थानीय आकांक्षाओं और पहचान का प्रतिनिधित्व करते हैं। आलोचकों का मानना है कि ‘एक राष्ट्र, एक चुनाव’ की व्यवस्था से क्षेत्रीय दलों का महत्व कम हो जाएगा। जब लोकसभा और विधानसभा चुनाव एक साथ होंगे, तो राष्ट्रीय दलों को अधिक कवरेज मिलेगा और वे मतदाताओं के सामने एक ही बड़ा एजेंडा प्रस्तुत कर पाएंगे। इसके विपरीत, क्षेत्रीय दल सीमित संसाधनों और कम पहुंच के कारण इस तरह के अभियान का मुकाबला करने में सक्षम नहीं होंगे। इससे राष्ट्रीय स्तर पर बहुमत हासिल करने वाले दल राज्यों में भी सत्ता पर काबिज हो सकते हैं, जिससे राजनीतिक एकाधिकार का खतरा बढ़ सकता है।
जवाबदेही का सवाल: क्या सरकारें कम जवाबदेह होंगी?
बार-बार होने वाले चुनाव सरकारों को जनता के प्रति जवाबदेह बनाए रखते हैं। जब लोकसभा या विधानसभा चुनाव होते हैं, तो सत्तारूढ़ दल को अपने प्रदर्शन का लेखा-जोखा देना पड़ता है। यदि ‘एक राष्ट्र, एक चुनाव’ लागू होता है, तो सरकारें पांच साल के कार्यकाल के लिए सुरक्षित हो जाएंगी, जिससे उनकी जवाबदेही कम हो सकती है। बीच में कोई चुनाव न होने से, सरकार के फैसलों पर जनता की राय सीधे तौर पर व्यक्त करने का अवसर कम हो जाएगा, जिससे जनहित के मुद्दों पर दबाव बनाने की क्षमता भी कमजोर होगी।
सामाजिक और विविधतापूर्ण प्रतिनिधित्व पर असर
भारत एक बहुभाषी, बहु-सांस्कृतिक और बहु-जातीय देश है। यहाँ हर क्षेत्र की अपनी अनूठी सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक पहचान है। आलोचकों का तर्क है कि एक साथ चुनाव कराने से यह विविधता खतरे में पड़ सकती है। स्थानीय और सामाजिक मुद्दे, जैसे जातिगत समीकरण, भाषाई पहचान या स्थानीय रीति-रिवाज, राष्ट्रीय स्तर के चुनावी शोर में दब सकते हैं। इससे हाशिए पर मौजूद समुदायों की आवाजें कमजोर पड़ सकती हैं, और वे अपने अधिकारों के लिए प्रभावी ढंग से लड़ नहीं पाएंगे।
आलोचना में तर्क
लेकिन इसके खिलाफ भी कई गंभीर तर्क सामने आते हैं:
- संघीय ढांचे पर असर: एक साथ चुनावों में राष्ट्रीय मुद्दे हावी रहेंगे, जिससे राज्यों के स्थानीय मुद्दे पीछे छूट जाएंगे।
- क्षेत्रीय दलों की कमजोर होती भूमिका: बड़े राष्ट्रीय दलों का दबदबा बढ़ेगा और छोटे/क्षेत्रीय दल हाशिए पर चले जाएंगे।
- जवाबदेही में कमी: बार-बार चुनाव न होने से सरकारों पर जनता का दबाव कम होगा।
- सामाजिक विविधता को खतरा: स्थानीय और सामाजिक पहचान (भाषा, जाति, क्षेत्रीय मुद्दे) राष्ट्रीय राजनीति में दब जाएंगे।
देवास की संगोष्ठी ने इस विषय पर लोगों की जिज्ञासाएं जगाईं। समर्थक इसे विकास और दक्षता की दिशा में कदम बताते हैं, जबकि आलोचक मानते हैं कि इससे लोकतंत्र की जड़ों पर असर पड़ सकता है।
“एक राष्ट्र, एक चुनाव” एक ऐसा विचार है जिसके फायदे भी हैं और चुनौतियाँ भी। यह प्रशासनिक सुधार और खर्च बचत का रास्ता दिखाता है, लेकिन साथ ही लोकतांत्रिक विविधता और संघीय ढांचे पर सवाल भी खड़े करता है।
भारत जैसे विविधता भरे देश में इस पर अंतिम निर्णय लेने से पहले व्यापक राष्ट्रीय बहस और सहमति बेहद ज़रूरी है।
📌 विस्तृत FAQs: ‘एक राष्ट्र, एक चुनाव’ (One Nation, One Election)
Q1. ‘एक राष्ट्र, एक चुनाव’ क्या है?
उत्तर:
‘एक राष्ट्र, एक चुनाव’ (One Nation, One Election) का मतलब है कि पूरे देश में लोकसभा और सभी राज्य विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराए जाएँ। अभी लोकसभा और विधानसभा चुनाव अलग-अलग समय पर होते हैं, जिससे चुनावी खर्च, प्रशासनिक बोझ और बार-बार आचार संहिता लागू होने की समस्या खड़ी होती है।
Q2. भारत में पहले कभी एक साथ चुनाव हुए हैं क्या?
उत्तर:
हाँ, 1951 से 1967 तक भारत में लोकसभा और राज्य विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराए जाते थे। लेकिन समय से पहले विधानसभाएँ भंग होने और अलग-अलग राज्यों में राजनीतिक अस्थिरता की वजह से यह व्यवस्था टूट गई।
Q3. सरकार ‘एक राष्ट्र, एक चुनाव’ क्यों लागू करना चाहती है?
उत्तर:
सरकार का मानना है कि इस प्रणाली से:
- चुनावी खर्च में भारी कमी आएगी।
- प्रशासन और सुरक्षा बलों पर दबाव घटेगा।
- सरकारें आचार संहिता की वजह से बार-बार रुकने के बजाय विकास कार्यों पर ध्यान दे पाएंगी।
- लोकतांत्रिक प्रक्रिया सरल और प्रभावी बनेगी।
Q4. इसके फायदे (Pros) क्या माने जाते हैं?
उत्तर:
- वित्तीय बचत – बार-बार चुनावों में लगने वाला खर्च कम होगा।
- प्रशासनिक दक्षता – सरकारी तंत्र को चुनावों की बजाय विकास कार्यों पर फोकस मिलेगा।
- स्थिरता – सरकारों को पूरा कार्यकाल बिना रुकावट काम करने का मौका मिलेगा।
- जनसहभागिता में आसानी – मतदाताओं को बार-बार वोटिंग के लिए नहीं जाना पड़ेगा।
Q5. इसके नुकसान (Cons) क्या हो सकते हैं?
उत्तर:
- क्षेत्रीय मुद्दे दब सकते हैं – राष्ट्रीय चुनावों में बड़े मुद्दे हावी रहेंगे और स्थानीय समस्याएँ पीछे छूट जाएँगी।
- क्षेत्रीय दल कमजोर होंगे – राष्ट्रीय दलों को फायदा होगा, जबकि छोटे दलों का प्रभाव कम हो सकता है।
- जवाबदेही कम होगी – सरकारें पूरे कार्यकाल तक सुरक्षित रहेंगी और बीच में जनता का दबाव कम हो जाएगा।
- संघीय ढाँचे पर असर – राज्यों की स्वतंत्र राजनीतिक पहचान और विविधता प्रभावित हो सकती है।
Q6. आलोचकों की मुख्य आपत्तियाँ क्या हैं?
उत्तर:
- यह संघीय ढाँचे और बहुदलीय लोकतंत्र के खिलाफ है।
- इससे राजनीतिक विविधता कमज़ोर होगी और “एक पार्टी हावी राजनीति” का खतरा बढ़ेगा।
- मतदाता राष्ट्रीय नेताओं की लोकप्रियता के आधार पर वोट करेंगे, जिससे स्थानीय नेताओं और मुद्दों की अहमियत घट जाएगी।
Q7. इस विषय पर हाल ही में क्या कदम उठाए गए हैं?
उत्तर:
केंद्र सरकार ने इस विषय पर एक उच्च स्तरीय समिति बनाई थी। इसकी रिपोर्ट को केंद्रीय मंत्रिमंडल ने स्वीकार किया है। इस रिपोर्ट में 2034 तक ‘एक राष्ट्र, एक चुनाव’ लागू करने की रूपरेखा दी गई है।
Q8. क्या यह सिर्फ बीजेपी का एजेंडा है?
उत्तर:
बीजेपी इसे जोर-शोर से आगे बढ़ा रही है और इसे “विकसित भारत” के लिए जरूरी मानती है। लेकिन विपक्षी दलों और आलोचकों का कहना है कि यह लोकतंत्र और संघीय ढाँचे के लिए खतरा है। यानी यह मुद्दा पूरी तरह से राजनीतिक बहस का केंद्र बन चुका है।
Q9. क्या ‘एक राष्ट्र, एक चुनाव’ से मतदाताओं को फायदा होगा?
उत्तर:
हाँ, ‘एक राष्ट्र, एक चुनाव’ से मतदाताओं को कुछ स्पष्ट फायदे मिल सकते हैं:
- कम झंझट: बार-बार वोटिंग के लिए छुट्टी लेने या लाइन में लगने की परेशानी नहीं होगी।
- समय और पैसे की बचत: मतदाता का व्यक्तिगत खर्च (यातायात, काम से छुट्टी आदि) भी कम होगा।
- सरल प्रक्रिया: एक ही समय पर वोट डालने से लोगों के लिए चुनाव प्रक्रिया आसान हो जाएगी।
लेकिन इसके साथ ही कुछ गंभीर खतरों/जोखिमों की ओर भी आलोचक ध्यान दिलाते हैं:
- स्थानीय मुद्दों की अनदेखी: जब चुनाव लोकसभा और विधानसभा के लिए एक साथ होंगे, तो मतदाता राष्ट्रीय मुद्दों (जैसे सुरक्षा, अर्थव्यवस्था, प्रधानमंत्री का चेहरा) से प्रभावित होकर वोट डाल सकते हैं। इससे उनके अपने राज्य या क्षेत्र की समस्याएँ (जैसे पानी, सड़क, शिक्षा, स्वास्थ्य) पीछे छूट सकती हैं।
- दबाव कम होने का खतरा: अभी अलग-अलग समय पर चुनाव होने से मतदाता सरकारों को बीच-बीच में “सबक सिखाने” या अपनी नाराज़गी जताने का मौका पाते हैं। एक साथ चुनाव होने पर सरकारें पाँच साल तक “सुरक्षित” हो सकती हैं और जनता का सीधा दबाव कम हो जाएगा।
- लोकतांत्रिक विविधता पर असर: आलोचकों का कहना है कि इससे बड़े दलों को फायदा होगा और छोटे/क्षेत्रीय दलों की आवाज़ दब सकती है। इससे मतदाता को विविध विकल्पों की कमी महसूस हो सकती है।
👉 यानी, मतदाताओं के लिए सुविधा और बचत तो है, लेकिन साथ ही यह खतरा भी है कि उनकी स्थानीय आवाज़ और तत्काल प्रभाव डालने की शक्ति कमजोर हो सकती है।
Q10. क्या इसे लागू करना आसान होगा?
उत्तर:
नहीं। इसके लिए:
- संविधान में संशोधन करना होगा।
- राज्यों और केंद्र में राजनीतिक सहमति जरूरी है।
- विधानसभाओं और लोकसभा का कार्यकाल एक साथ लाना होगा, जो तकनीकी और राजनीतिक रूप से कठिन है।
जहाँ ‘एक राष्ट्र, एक चुनाव’ के समर्थक आर्थिक और प्रशासनिक लाभों की बात करते हैं, वहीं इसके आलोचक यह मानते हैं कि यह प्रणाली भारत के संघीय ढांचे, बहुदलीय लोकतंत्र और सामाजिक विविधता के लिए एक गंभीर खतरा है। यह सिर्फ एक तकनीकी या वित्तीय सुधार नहीं है, बल्कि इसका सीधा असर हमारे लोकतांत्रिक मूल्यों और प्रतिनिधित्व पर पड़ेगा। इसलिए, इस मुद्दे पर कोई भी अंतिम निर्णय लेने से पहले, इसके सभी सामाजिक और राजनीतिक पहलुओं पर गहराई से विचार करना आवश्यक है। यह एक ऐसा कदम है जो भारत के भविष्य की दिशा तय करेगा, और इसलिए इस पर व्यापक राष्ट्रीय बहस जरूरी है।

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