99% दुर्घटनाओं के पीछे शराब, फिर भी चर्चा क्यों नहीं?
भारत में सड़क दुर्घटनाओं की बात होते ही ओवरलोडिंग, तेज रफ्तार और खराब सड़कों की चर्चा होती है, लेकिन जो सबसे बड़ा कारण है – शराब – उस पर सन्नाटा रहता है। केंद्रीय परिवहन मंत्रालय के आंकड़ों के अनुसार, 2023 में नशे या शराब के प्रभाव में ड्राइविंग से लगभग 1.9% दुर्घटनाएं हुईं, जिनमें 2,935 लोगों की जान गई। लेकिन एम्स ऋषिकेश की एक चौंकाने वाली रिसर्च ने खुलासा किया कि वास्तविकता इससे कहीं ज्यादा भयावह है – सड़क पर होने वाले 57.7% हादसों में शराब जिम्मेदार होती है।
2023 में भारत में कुल 4,64,029 सड़क दुर्घटनाएं हुईं, जिनमें 1,73,826 लोगों की मौत हुई। 2025 के पहले छह महीनों में ही राष्ट्रीय राजमार्गों पर 67,933 दुर्घटनाओं में 29,018 लोगों की मौत हो चुकी है – यह 2024 की कुल मौतों का 50% से अधिक है। दिल्ली जैसे शहरी केंद्रों में यह समस्या और गंभीर है – 2024 में नशे में ड्राइविंग के मामलों में 40% की वृद्धि हुई, और 2025 की पहली तिमाही में ही 7,000 से अधिक मामले दर्ज किए गए।
सवाल यह है कि जब शराब इतनी बड़ी समस्या है, तो इस पर खुलकर बहस क्यों नहीं होती? जवाब सीधा है – क्योंकि यह सरकार की आय का सबसे बड़ा स्रोत है।
राजस्व का सोना खनन: शराब से कमाई का खेल
2020-21 में भारत ने शराब पर उत्पाद शुल्क से लगभग 1.75 लाख करोड़ रुपये कमाए। शराब पर उत्पाद शुल्क 19 प्रमुख राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में औसतन 13.7% कर राजस्व देता है। 2023-24 में उत्तर प्रदेश ने अकेले शराब से ₹39,600 करोड़ का राजस्व अर्जित किया, और FY26 के लिए 60,000 करोड़ रुपये का महत्वाकांक्षी लक्ष्य रखा है। महाराष्ट्र ने ₹37,000 करोड़, आंध्र प्रदेश ने ₹27,000 करोड़, तमिलनाडु ने VAT और उत्पाद शुल्क सहित 45,855 करोड़ रुपये कमाए।
कर्नाटक (₹19,500 करोड़), पश्चिम बंगाल (₹11,300 करोड़), हरियाणा (₹11,000 करोड़) और मध्य प्रदेश (₹9,600 करोड़) भी इस सूची में शामिल हैं। 2025 में उत्तर प्रदेश ने नया रिकॉर्ड बनाया जब राज्य ने शराब की बिक्री से अब तक का सबसे अधिक राजस्व अर्जित किया – जनवरी से अगस्त 2025 तक 22,337 करोड़ रुपये पहले ही जमा हो चुके हैं।
ये आंकड़े बताते हैं कि राज्य सरकारों के लिए शराब सोने की खान है। यह आय बुनियादी ढांचे, कल्याणकारी योजनाओं और अन्य कार्यक्रमों को निधि देती है, जिसके कारण शराब की बिक्री पर कोई भी प्रतिबंध राजनीतिक रूप से अस्वीकार्य है। इसीलिए इस मुद्दे पर किसी भी सरकार को गंभीर होते नहीं देखा जाता।
राजनीतिक नेक्सस: ठेकेदार से नेता तक का जाल
शराब का पूरा नेटवर्क राजनीतिक रूप से संचालित है। ठेकेदारों से लेकर डिस्ट्रीब्यूटर्स तक, हर कड़ी में किसी न किसी नेता या उनके करीबी व्यापारी का हाथ होता है। 2022 के दिल्ली शराब नीति घोटाले जैसे हाई-प्रोफाइल मामले, जिसमें आम आदमी पार्टी शामिल थी, उद्योग में सुधार के प्रयासों में कथित भ्रष्टाचार को उजागर करते हैं।
कांग्रेस नेता रणदीप सुरजेवाला ने 2020 में हरियाणा में शराब चोरी मामले की जांच में रुकावट डालने के लिए शराब माफिया और सरकारी अधिकारियों के गठजोड़ का आरोप लगाया था। बीजेपी ने भी केरल में कांग्रेस नेताओं और शराब माफिया के बीच गठजोड़ का आरोप लगाया है। आंध्र प्रदेश में वाईएसआरसीपी ने मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू पर आरोप लगाया कि वे टीडीपी नेताओं को बचाने के लिए शराब माफिया को संरक्षण दे रहे हैं।
सिंडिकेट और उत्पाद नीतियों में पक्षपात के आरोप बने रहते हैं, भारतीय स्पिरिट निर्माता विदेशी ब्रांडों के खिलाफ भेदभाव का दावा करते हैं। यह गठजोड़ नौकरशाहों तक फैला है, जिससे एक ऐसी प्रणाली बनती है जहां शराब कारोबारी नीतियों पर प्रभाव डालते हैं। सभी दलों के पास हित हैं, जिसके कारण निषेध या नियमन पर नीतियां असंगत रहती हैं।
चुनावी रणनीति में शराब का महत्व
चुनाव के दौरान शराब वोट मैनेजमेंट का अहम हिस्सा बनती है। ठेकेदार और विक्रेता मतदाताओं तक पहुंचने में राजनीतिक दलों की मदद करते हैं। मुफ्त शराब बांटकर वोट खरीदने की घटनाएं आम हैं। निर्वाचन आयोग द्वारा जब्ती इसका पैमाना दर्शाती है: 2019 में, 474 मिलियन डॉलर से अधिक की नकदी, शराब, ड्रग्स और सोना जब्त किया गया। 2024 तक, चुनावों से पहले रिकॉर्ड मात्रा में रिश्वत, जिसमें शराब शामिल थी, जब्त की गई।
मतदाता अक्सर इस “रिश्वत” का उपयोग शराब, मांस या अन्य सामान के लिए करते हैं, हालांकि शोध दिखाता है कि यह हमेशा वोट को प्रभावित नहीं करता। वोट-खरीद विरोधी अभियानों का सीमित प्रभाव रहा है। चुनावी निषेध से कभी-कभी अचानक अनुपलब्धता के कारण स्वास्थ्य समस्याएं भी होती हैं। यह प्रथा शराब नेटवर्क की राजनीतिक उपयोगिता को मजबूत करती है, जिससे सुधार मुश्किल हो जाता है।
पुलिस-प्रशासन की भूमिका: भ्रष्टाचार का चक्र
शराब का अवैध कारोबार तब तक नहीं चल सकता जब तक पुलिस और प्रशासन की मिलीभगत न हो। हाल के मामलों में पंजाब के एक डीआईजी का रिश्वत कांड शामिल है, जहां जांच में 5 करोड़ रुपये नकद, लग्जरी कारें, सोना और आयातित शराब बरामद हुई। हरियाणा में, एक आईपीएस अधिकारी की आत्महत्या शराब से संबंधित भ्रष्टाचार मामले में उगाही से जुड़ी थी।
डियाजियो और तिलकनगर इंडस्ट्रीज जैसी बड़ी कंपनियां रिश्वत और अनियमित प्रथाओं के लिए जांच का सामना कर रही हैं। आंध्र प्रदेश और तमिलनाडु में नकली शराब के घोटालों में राजनीतिक संरक्षण और ED की जांच शामिल है।
मध्य प्रदेश से गुजरात में शराब की तस्करी का मामला इसका जीता जागता उदाहरण है, जहां प्रतिबंध के बावजूद शराब की आपूर्ति निर्बाध रूप से जारी रहती है। पुलिस और एक्साइज अधिकारियों को “मैनेज” करने के लिए शराब माफिया नियमित रूप से भुगतान करती है। यह व्यवस्था इतनी गहरी है कि अधिकांश मामलों में कार्रवाई केवल राजनीतिक दबाव में या मीडिया एक्सपोजर के बाद होती है।
मीडिया की चुप्पी: लिफाफे और डिस्काउंट
मीडिया को भी इस नेटवर्क में शामिल करके चुप रखा जाता है। मीडिया की मिलीभगत की भी आशंका है, रिश्वत या विशेष छूट के माध्यम से, जो कवरेज को दबाती है। कुछ मीडियाकर्मियों को नियमित “लिफाफे” मिलते हैं, तो कुछ को शराब पर विशेष छूट दी जाती है। बड़े मीडिया हाउसेज को शराब कंपनियों से भारी विज्ञापन मिलते हैं, जो उन्हें इस मुद्दे पर आलोचनात्मक रिपोर्टिंग से रोकता है।
यही कारण है कि जब सड़क दुर्घटनाओं की खबरें आती हैं, तो शराब के कारण को कम महत्व दिया जाता है। फोकस हमेशा अन्य कारणों पर रहता है। यह “सेट” तंत्र—जिसमें राजनेता, अधिकारी और पत्रकार शामिल हैं—न्यूनतम जांच सुनिश्चित करता है।
एम्स ऋषिकेश की चौंकाने वाली रिसर्च
एम्स ऋषिकेश के ट्रॉमा सेंटर में भर्ती हुए 383 ड्राइवर पीड़ितों पर रिसर्च में सामने आया कि 57.7% ड्राइवर शराब पीकर गाड़ी चला रहे थे। वहीं 18.6% ने गांजा और दूसरी साइकोट्रॉपिक दवाएं ली थीं। इसके अलावा 14.6% ड्राइवर शराब और ड्रग्स दोनों के असर में थे। 21.7% को दिन में जरूरत से ज्यादा नींद की समस्या थी, और 26.6% को थकान और नींद से जुड़ी दिक्कतें थीं।
एम्स के न्यूरोसाइकेट्री विभाग के विशेषज्ञ डॉ. रवि गुप्ता बताते हैं कि हर मरीज का ब्लड और यूरिन टेस्ट किया गया और validated sleep tools से उनकी नींद का पैटर्न समझा गया। इससे जो नतीजे मिले वो बताते हैं कि भारत में सड़क हादसे केवल सड़क और ट्रैफिक नियमों से जुड़े मुद्दे नहीं हैं बल्कि नशा और नींद की दिक्कतें भी इसमें सीधे जिम्मेदार हैं।
बिहार और गुजरात: शराबबंदी की हकीकत
बिहार और गुजरात में शराबबंदी है, इसलिए इन राज्यों को शराब से कोई राजस्व नहीं मिलता। लेकिन क्या वाकई इन राज्यों में शराब नहीं मिलती? जमीनी हकीकत बिल्कुल अलग है। अवैध तस्करी का धंधा फल-फूल रहा है और इससे कमाई माफिया और भ्रष्ट अधिकारियों की जेब में जा रही है।
तेजस्वी यादव ने बिहार में जहरीली शराब से मौतों के बाद शराबबंदी को “सुपर फ्लॉप” करार दिया था। प्रतिबंध लगाने से समस्या का समाधान नहीं होता, बल्कि अवैध व्यवसाय को बढ़ावा मिलता है। जो भी इस व्यवस्था को चुनौती देता है, उसे शराब माफिया का समर्थक या राजनीतिक विरोधी करार दिया जाता है।
जब पूरा तंत्र सेट हो तो बोले कौन?
जब राजनेता शराब व्यवसाय से जुड़े हों, प्रशासन और पुलिस को “मैनेज” किया गया हो, और मीडिया को लाभान्वित किया गया हो, तो इस मुद्दे पर आवाज उठाना मुश्किल हो जाता है। WHO के अनुसार निम्न और मध्यम आय वाले देशों में सड़क हादसों से मौत का खतरा हाई-इनकम देशों से तीन गुना ज्यादा है।
भारत में हर साल 1.35 लाख मौतें और 50 लाख से ज्यादा चोटें सड़क हादसों से होती हैं। 2023 में कुल 1.72 लाख से अधिक लोगों की मौत सड़क दुर्घटनाओं में हुई। इन आंकड़ों के बावजूद नीतिगत प्रतिक्रियाएं अक्सर अपर्याप्त रहती हैं, क्योंकि आर्थिक और राजनीतिक हित हावी हो जाते हैं।
शराब और दुर्घटनाओं के बीच संबंध पर खुली बहस होनी चाहिए। सरकारों को राजस्व से ऊपर उठकर जनहित में सोचना होगा। व्यावहारिक सुझाव:
स्वच्छ राजस्व नीति: शराब-राजस्व पर राज्य की निर्भरता कम करने के उद्देश्य से वैकल्पिक टैक्स और विकास-फंडिंग मॉडल विकसित करें।
लाइसेंसिंग में पारदर्शिता: लाइसेंस जारी करने और नवीनीकरण की प्रक्रिया पूरी तरह सार्वजनिक और डिजिटल हो; भ्रष्टाचार की गुंजाइश कम होगी।
कठोर अनुशासन और प्रवर्तन: नशे में वाहन चलाने पर रैंडम ड्राइविंग चेक, शरीर में अल्कोहल टेस्टिंग के मानक और सख्त दंड। ट्रक-बस में ड्राइवर अलर्ट सिस्टम लगाना चाहिए। नशे में गाड़ी चलाने पर लाइसेंस तुरंत रद्द हो।
पुलिस-प्रशासनिक सुधार: प्रशिक्षण, निगरानी, और अनुशासनात्मक कार्रवाई के स्पष्ट नियम; अधिकारियों के खिलाफ प्रमाणित भ्रष्टाचार पर तेज़ कार्यवाही।
मीडिया-अकाउंटेबिलिटी: स्थानीय मीडिया में ट्रांसपेरेंसी और कॉरपोरेट ऐड-रिपोर्टिंग पर सार्वजनिक निगरानी; पीयर-रिव्यू तरह के मंच बनाए जाएं।
लोकजागरुकता और शिक्षा: युवाओं में रोड-सेफ्टी और नशा-विरोधी शिक्षा अनिवार्य; परिवार-स्तर पर जिम्मेदार व्यवहार को बढ़ावा।
अल्कोहल-हेल्थ सर्विसेज: नशे की रोकथाम और उपचार केंद्रों का विस्तार, रिलैप्स-रिडक्शन प्रोग्राम और समुदायिक समर्थन।
चुनावी सुधार: चुनावों में शराब वितरण को रोकने हेतु सख्त निगरानी और चुनाव आयोग के रेगुलेटरी कड़े कदम।
लेकिन जब तक राजनीतिक इच्छाशक्ति नहीं होगी, यह व्यवस्था यूं ही चलती रहेगी। और शराब के नाम पर राजस्व कमाने की होड़ में सड़कों पर मरने वालों की संख्या बढ़ती रहेगी। सिर्फ पुलिस-रैड और चेतावनी पोस्टर से काम नहीं चलेगा; पारदर्शिता, जवाबदेही और सामाजिक जागरूकता की प्रणाली चाहिए जो दारू-नेटवर्क के आर्थिक-राजनीतिक आधार को कमजोर करे।
सवाल यह है – क्या हम राजस्व की चाह में अपनी सड़कों को कब्रिस्तान बनाते रहेंगे?
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