पत्रकारिता या चापलूसी? कॉपी-पेस्ट पत्रकारिता: लोकतंत्र के चौथे स्तंभ पर सबसे बड़ा तमाचा

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आजकल पत्रकारिता और प्रचार के बीच की रेखा धुंधली हो गई है। एक अजीब चलन शुरू हो गया है, लोग सिर्फ नेताओं और अधिकारियों की प्रेस रिलीज़ या उनके द्वारा भेजी गई जानकारियों को कॉपी-पेस्ट करके खबर बना देते हैं। उसमें अपना नाम और मोबाइल नंबर लगाकर यह दिखाने की कोशिश करते हैं कि वही “पत्रकार” हैं। इससे नेता और अधिकारी खुश रहते हैं क्योंकि उनकी छवि चमकती है, लेकिन असली जनता की समस्याएँ कहीं पीछे छूट जाती हैं।

आजकल सच्चाई यह है कि पत्रकारिता का स्तर खतरनाक ढंग से गिर चुका है।
अख़बारों से लेकर टीवी चैनलों, वेबसाइटों और यूट्यूब तक — हर जगह “स्वघोषित पत्रकारों” की बाढ़ आ गई है। ये लोग पत्रकारिता नहीं, बल्कि “कॉपी-पेस्ट की दुकान” चला रहे हैं।

नेताओं और अधिकारियों से प्रेस नोट या प्रेस रिलीज़ आती है। बस वही शब्द-दर-शब्द छाप दिया जाता है। नाम बदल जाते हैं, मोबाइल नंबर बदल जाते हैं, लेकिन खबर वही की वही। न सवाल, न पड़ताल, न विश्लेषण, न जनता की आवाज़ — केवल “चापलूसी”।

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लोकतंत्र का चौथा स्तंभ — अब खोखला क्यों?

भारत का संविधान पत्रकारिता को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ मानता है।
विधानसभा, न्यायपालिका और कार्यपालिका के साथ मीडिया को इसलिए जगह दी गई क्योंकि इसका काम था — जनता की आवाज़ उठाना, सत्ता से सवाल करना और सच्चाई सामने रखना।

लेकिन अफसोस!
आज यही चौथा स्तंभ खोखला होता जा रहा है।

  • जहाँ पत्रकार को जनहित में तल्ख़ सवाल पूछने चाहिए, वहाँ वह नेताओं की तालियाँ बजा रहा है।
  • जहाँ उसे ज़मीनी हकीकत दिखानी चाहिए, वहाँ वह अधिकारियों के भेजे हुए प्रेस नोट कॉपी-पेस्ट कर रहा है।
  • जहाँ जनता को सच चाहिए, वहाँ उसे चमक-दमक वाली तस्वीरें और खोखले बयान मिल रहे हैं।

कितना आसान है पत्रकारिता को गिराना

पत्रकारिता करना कितना अगम, कितना कठिन काम है — यह बात पुरानी पीढ़ी जानती थी।
जान जोखिम में डालकर सच्चाई लानी, सत्ता से टकराना, जनता के साथ खड़ा होना — यही असली पत्रकारिता थी।
लेकिन आज देखिए,
पत्रकारिता का मतलब हो गया है —

  • फोटो खिंचवाना,
  • नेता की प्रेस कॉन्फ्रेंस में कुर्सी घेरना,
  • और फेसबुक पर “ब्रेकिंग” लिखकर वही प्रेस रिलीज़ चिपका देना।

प्रेस नोट पत्रकारिता – सच्चाई से पलायन

आजकल देखा जा रहा है कि सैकड़ों “स्वघोषित पत्रकार” यूट्यूब चैनलों, वेबसाइटों और यहाँ तक कि अख़बारों व पीडीएफ वॉले पेपरों में भी वही शब्दशः छाप देते हैं जो नेता और अधिकारी भेजते हैं। बस फर्क इतना होता है कि हर जगह नाम बदल जाता है।
यह कौन-सी पत्रकारिता है? यह तो मात्र प्रेस रिलीज़ प्रकाशन है। और दुख की बात यह है कि इसे ही “खबर” समझा जाने लगा है।

नेता–अधिकारी खुश, जनता ठगा

नेता आते हैं, बड़े-बड़े वादे करते हैं। अधिकारी आते हैं, तबादले के बाद भाषण झाड़ते हैं। पत्रकार वहां खड़े होकर ताली बजाते हैं और वाह-वाह करते हैं।
कभी सोचा है? इन बयानों और वादों की सच्चाई कौन जाँच रहा है?
ना कोई ग्राउंड रिपोर्ट, ना कोई तथ्य-जांच।
नतीजा यह कि नेता और अधिकारी खुश रहते हैं, क्योंकि उनकी छवि चमक रही होती है। लेकिन असली जनता के मुद्दे पीछे छूट जाते हैं – सड़कें टूटी पड़ी हैं, स्कूलों में शिक्षक नहीं हैं, अस्पतालों में दवाएँ नहीं हैं, लेकिन इन मुद्दों पर पत्रकार चुप हैं।

असली समस्या कहाँ है?

  1. चाटुकारिता बनाम पत्रकारिता:
    • जब खबरें सिर्फ नेताओं/अधिकारियों की उपलब्धियाँ दिखाने तक सीमित रह जाएँ, तो यह पत्रकारिता नहीं, बल्कि प्रचार है।
    • पत्रकार का रोल “जनता और सत्ता के बीच पुल” बनने का है, न कि सिर्फ सत्ता का प्रवक्ता बनने का।
  2. जमीनी सच्चाई से दूरी:
    • गाँव-गाँव की समस्याएँ, बेरोजगारी, शिक्षा, स्वास्थ्य, भ्रष्टाचार – इन मुद्दों की रिपोर्टिंग अब बहुत कम हो रही है।
    • जबकि यही वे मुद्दे हैं, जिन पर आम जनता की ज़िंदगी निर्भर करती है।
  3. एकतरफा जानकारी:
    • प्रेस नोट या नेताओं के बयान को बिना सवाल पूछे पब्लिश कर देना एकतरफा पत्रकारिता है।
    • असली पत्रकारिता सवाल खड़े करती है और दोनों पक्षों की सच्चाई सामने लाती है।

पत्रकारिता कैसी होनी चाहिए?

  • मैदान से आवाज़: जनता के बीच जाकर उनकी समस्याएँ, अनुभव और दर्द को लिखना।
  • सत्ता से सवाल: सिर्फ “क्या किया” बताने की बजाय, यह पूछना कि “कितना किया” और “क्यों नहीं किया”।
  • जनहित पर केंद्रित: खबरें सिर्फ नेताओं की रैलियों या बयानों तक न रहें, बल्कि गाँव की टूटी सड़क, स्कूल में शिक्षक की कमी और अस्पताल में दवाओं की किल्लत तक पहुँचें।
  • स्वतंत्रता और साहस: नेता खुश हों या नाराज़, अधिकारी प्रशंसा करें या नाराज़ हों – पत्रकार का काम है जनता के प्रति ईमानदार रहना।

जो खबर जनता से जुड़ी न हो, सिर्फ नेताओं और अधिकारियों की चापलूसी हो – वह पत्रकारिता नहीं, बल्कि “प्रेस विज्ञप्ति प्रकाशन” है। असली पत्रकारिता वहीं है जहाँ जमीन की हकीकत, जनता की तकलीफ़ और सत्ता से सवाल दिखाई दे।

पत्रकारिता का मतलब सत्ता की चापलूसी करना नहीं है। लेकिन आज हालात यह हैं कि चापलूस भी पीछे छूट जाते हैं, जब “स्वघोषित पत्रकार” नेताओं और अधिकारियों की तारीफ़ में कसीदे पढ़ते हैं।
सवाल यह है कि जब चौथा स्तंभ ही सत्ता की गोद में बैठ जाएगा तो लोकतंत्र का संतुलन कैसे बचेगा?

असली पत्रकारिता कठिन है, लेकिन ज़रूरी है

पत्रकारिता का रास्ता कभी आसान नहीं रहा।

  • असली पत्रकार सत्ता से सवाल करता है।
  • जमीनी हकीकत दिखाता है।
  • जनता की आवाज़ बनता है।
    लेकिन आज पत्रकारिता का मतलब हो गया है – फोटो खिंचवाना, आईडी कार्ड लटकाना और प्रेस नोट कॉपी-पेस्ट करना।

अगर आपको लगता है कि केवल प्रेस रिलीज़ और बधाई संदेश छापकर आप पत्रकार हैं, तो आप बहुत बड़ी भूल कर रहे हैं।
यह पत्रकारिता नहीं, बल्कि “प्रेस विज्ञप्ति प्रकाशन” है।
ऐसा काम करने वाले न पत्रकार हैं, न समाज के लिए उपयोगी।

लोकतंत्र के लिए सबसे बड़ा खतरा

जब चौथा स्तंभ खोखला हो जाए तो लोकतंत्र की नींव हिल जाती है। जनता के पास न अदालत तक पहुँचने का आसान रास्ता है, न विधायिका तक सीधे पहुँचने का।
जनता का एकमात्र सहारा मीडिया था – और अगर वही जनता को धोखा देने लगे तो लोकतंत्र का भविष्य अंधकारमय हो जाता है।

👉 इसलिए ज़रूरी है कि पत्रकार फिर से अपनी असली भूमिका याद करें।
पत्रकार का काम है – सत्ता से सवाल करना, जनता के मुद्दों को प्राथमिकता देना और सच्चाई को निडर होकर सामने रखना।

बाकी जो केवल नेताओं और अधिकारियों के भेजे हुए नोट छाप रहे हैं, उन्हें समझ लेना चाहिए –
वे पत्रकार नहीं, सिर्फ़ सत्ता के प्रवक्ता हैं।

यह कैसी पत्रकारिता?

  • जब हर खबर नेताओं और अफसरों के भेजे गए बयान पर टिकी हो, तो पत्रकार की भूमिका कहाँ रह जाती है?
  • जब हर कोई अपने आप को पत्रकार कहे और बस कॉपी-पेस्ट से अख़बार, वेबसाइट या यूट्यूब चैनल चला ले, तो लोकतंत्र का चौथा स्तंभ खोखला हो जाता है।
  • जनता की असली समस्याएँ — पानी, सड़क, शिक्षा, स्वास्थ्य, बेरोजगारी — ये मुद्दे पन्नों और स्क्रीन से गायब हो जाते हैं।

पत्रकारिता या दलाली?

सच यही है कि ऐसी “कॉपी-पेस्ट पत्रकारिता” असल में पत्रकारिता नहीं, बल्कि दलाली का नया रूप है।
नेता और अधिकारी खुश रहते हैं कि उनकी चमकदार छवि जनता तक पहुँच रही है। बदले में तथाकथित पत्रकारों को “पहचान” और “नज़दीकी” का सुख मिल जाता है।

लेकिन इससे समाज को क्या मिलता है? झूठी तसल्ली और अंधकार।

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जनता के साथ विश्वासघात

पत्रकार का पहला कर्तव्य है — जनता की आवाज़ बनना। लेकिन आज कई लोग जनता की जगह नेताओं की आवाज़ बन चुके हैं।
पत्रकारिता तब तक सार्थक है जब तक वह सत्ता से सवाल पूछे, सच्चाई खोजे और उन समस्याओं को सामने रखे जिन्हें कोई नहीं सुन रहा।

तमाचा इन “पत्रकारों” पर

कॉपी-पेस्ट करने वाले उन सभी “पत्रकारों” पर यह लेख सीधा तमाचा है।
क्योंकि पत्रकारिता नाम की इस महान जिम्मेदारी को उन्होंने मज़ाक बना दिया है।

आगे का रास्ता

सच्ची पत्रकारिता वही है जिसमें –

  • नेता और अफसर के बयान से आगे बढ़कर उसकी जाँच हो।
  • जनता से बातचीत हो, उनकी पीड़ा सामने लाई जाए।
  • सुविधा की खबरें नहीं, असुविधा की सच्चाइयाँ लिखी जाएँ।

पत्रकारिता का मतलब चापलूसी नहीं, सवाल करना है।

स्वघोषित पत्रकारों की होड़

आज हालत यह है कि असली चापलूस भी पीछे छूट गए हैं।
उनसे आगे निकल गए हैं “स्वघोषित पत्रकार” — जो बिना मेहनत, बिना जाँच, बिना सच्चाई खोजे, सिर्फ फोटो खिंचवाने और प्रेस नोट छापने में लगे रहते हैं।

प्रेस नोट पत्रकारिता – सच्चाई से पलायन

आजकल देखा जा रहा है कि सैकड़ों “स्वघोषित पत्रकार” यूट्यूब चैनलों, वेबसाइटों और यहाँ तक कि अख़बारों व पीडीएफ वॉले पेपरों में भी वही शब्दशः छाप देते हैं जो नेता और अधिकारी भेजते हैं। बस फर्क इतना होता है कि हर जगह नाम बदल जाता है।
यह कौन-सी पत्रकारिता है? यह तो मात्र प्रेस रिलीज़ प्रकाशन है। और दुख की बात यह है कि इसे ही “खबर” समझा जाने लगा है।

नेता–अधिकारी खुश, जनता ठगा

नेता आते हैं, बड़े-बड़े वादे करते हैं। अधिकारी आते हैं, तबादले के बाद भाषण झाड़ते हैं। पत्रकार वहां खड़े होकर ताली बजाते हैं और वाह-वाह करते हैं।
कभी सोचा है? इन बयानों और वादों की सच्चाई कौन जाँच रहा है?
ना कोई ग्राउंड रिपोर्ट, ना कोई तथ्य-जांच।
नतीजा यह कि नेता और अधिकारी खुश रहते हैं, क्योंकि उनकी छवि चमक रही होती है। लेकिन असली जनता के मुद्दे पीछे छूट जाते हैं – सड़कें टूटी पड़ी हैं, स्कूलों में शिक्षक नहीं हैं, अस्पतालों में दवाएँ नहीं हैं, लेकिन इन मुद्दों पर पत्रकार चुप हैं।

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चापलूसी बनाम पत्रकारिता

पत्रकारिता का मतलब सत्ता की चापलूसी करना नहीं है। लेकिन आज हालात यह हैं कि चापलूस भी पीछे छूट जाते हैं, जब “स्वघोषित पत्रकार” नेताओं और अधिकारियों की तारीफ़ में कसीदे पढ़ते हैं।
सवाल यह है कि जब चौथा स्तंभ ही सत्ता की गोद में बैठ जाएगा तो लोकतंत्र का संतुलन कैसे बचेगा?

जब चौथा स्तंभ खोखला हो जाए तो लोकतंत्र की नींव हिल जाती है। जनता के पास न अदालत तक पहुँचने का आसान रास्ता है, न विधायिका तक सीधे पहुँचने का। जनता का एकमात्र सहारा मीडिया था – और अगर वही जनता को धोखा देने लगे तो लोकतंत्र का भविष्य अंधकारमय हो जाता है।

“MP Jankranti News सिर्फ एक न्यूज़ पोर्टल नहीं, बल्कि जनता की आवाज़ है। हमारी पत्रकारिता का मकसद नेताओं या अधिकारियों को खुश करना नहीं, बल्कि जनता की सच्चाई सामने लाना है। इसलिए हमारी खबरें हमेशा ग्राउंड से जुड़ी होंगी, जिसमें आम आदमी की तकलीफ़, उसकी समस्या और उसका सच शामिल होगा। प्रेस नोट या बयान प्रकाशित करना पत्रकारिता नहीं, बल्कि सिर्फ सूचना प्रसार है। हमारी टीम की पहचान तभी बनेगी जब हम समाज के असली मुद्दों को उठाएँगे।”

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