खरगोन जिले के बड़वाह तहसील में मोदरी गांव के करीब 699 हेक्टेयर वन क्षेत्र में फॉस्फोराइट खनन की योजना के खिलाफ संत समाज ने मध्य प्रदेश हाईकोर्ट में जनहित याचिका दायर की है। सूत्रों के मुताबिक, यह क्षेत्र नर्मदा नदी का तट है और धार्मिक महत्व की तपोभूमि माना जाता है, जहां च्यवन ऋषि की तप स्थली और कश्यप ऋषि का आश्रम स्थित हैं। याचिका में केंद्र सरकार और मध्य प्रदेश सरकार को पक्षकार बनाया गया है।
तपोभूमि के जंगल बचाने को संतों ने हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया
मुख्य बिंदु:
- इंदौर-खंडवा रेल लाइन के लिए खनन प्रस्ताव: खरगोन जिले के बड़वाह सामान्य वन मंडल में 699 हेक्टेयर जंगल क्षेत्र में फॉस्फोराइट खनन के लिए टेंडर जारी किया गया है, जो इंदौर-खंडवा रेल लाइन निर्माण से जुड़ा है।
- संत समाज और पर्यावरण कार्यकर्ताओं की याचिका: संत समाज, पर्यावरणविदों और सामाजिक संगठनों ने मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय में जनहित याचिका दायर की है, जिसमें खनन और जंगल कटाई रोकने की मांग की गई है।
- धार्मिक और पर्यावरणीय महत्व पर जोर: याचिका में कहा गया है कि यह क्षेत्र मां नर्मदा का तट है, जहां च्यवन ऋषि की तप स्थली, कश्यप ऋषि का कठोवा आश्रम और जैन तीर्थ जैसे प्राचीन धार्मिक स्थल मौजूद हैं, जो खनन से खतरे में हैं।
- पर्यावरण और वन्य जीवन को खतरा: क्षेत्र में बाघ, तेंदुआ, भालू, हिरण समेत विभिन्न वन्य प्राणी और 56 प्रकार के वृक्ष हैं। खनन से जंगल कटाई, जल स्रोतों की कमी और पारिस्थितिकी तंत्र को गंभीर नुकसान होने की आशंका है।
- महू, चोरल और किठान के जंगल प्रभावित: इंदौर-खंडवा रेल लाइन के लिए महू, चोरल और किठान के जंगल क्षेत्रों में भी खनन और पेड़ों की कटाई प्रस्तावित है, जिसके खिलाफ संतों ने आपत्ति दर्ज की है।
- हाईकोर्ट के निर्देश: मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय ने यूनियन ऑफ इंडिया और मध्य प्रदेश शासन को 10 नवंबर 2025 तक खनन के दुष्प्रभावों और धार्मिक-पार्यावरणीय महत्व पर एफिडेविट दाखिल करने के निर्देश दिए हैं।
- संत समाज का दावा: संत शेष महाराज ‘सोमेश’ झुलिया गुरु और तपस्थली प्रभारी सज्जन महाराज ने क्षेत्र को ‘तपोभूमि’ और ‘देवभूमि’ बताते हुए कहा कि खनन से धार्मिक स्थलों और सकल समाज की श्रद्धा को ठेस पहुंचेगी।
- वैज्ञानिक और धार्मिक आधार: स्वामी श्री करपात्री जी महाराज कल्याण आश्रम और पर्यावरणविदों ने वैदिक शास्त्रों और वैज्ञानिक तथ्यों के आधार पर क्षेत्र के भूगर्भीय और पर्यावरणीय महत्व को रेखांकित किया है।

मध्यप्रदेश में यह मामला एक बार फिर विकास परियोजनाओं और धार्मिक आस्था के टकराव को दिखाता है। महू-चोरल इलाके के जंगल में हजारों पेड़ काटने और लाखों टन पत्थर निकालने का काम प्रस्तावित है, जिसकी वजह इंदौर-खंडवा रेल लाइन निर्माण बताई जा रही है। लेकिन इस इलाके को संतों द्वारा ‘देवभूमि’ या ‘तपोभूमि’ माना जाता रहा है।
भोपाल। इंदौर-खंडवा रेल लाइन परियोजना के लिए चयनित महू, चोरल एवं किठान के जंगलों में खनन को लेकर विवाद गहरा गया है। संत समाज और पर्यावरण सेवकों ने इस परियोजना के खिलाफ मध्यप्रदेश उच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया है। याचिका में आरोप लगाया गया है कि इस खनन से क्षेत्र की ‘तपोभूमि’ और नर्मदा तट के पारिस्थितिकी तंत्र को गंभीर नुकसान होगा।
याचिकाकर्ताओं का कहना है कि यह वन क्षेत्र धार्मिक और पारिस्थितिकीय, दोनों ही दृष्टि से अत्यंत संवेदनशील है। संत शेष महाराज ‘सोमेश’ झुलिया गुरु और तपस्थली प्रभारी सज्जन महाराज सहित अन्य संतों ने अदालत में पेश किया कि यह क्षेत्र ऋषि च्यवन की तप स्थली, ऋषि कश्यप के कठोवा आश्रम और कई जैन तीर्थों की भूमि है, जिसे ‘देवभूमि’ के रूप में जाना जाता है।
स्थानीय सूत्रों के मुताबिक, इस वन में बाघ, तेंदुआ, लकड़बग्घा, भालू समेत कई दुर्लभ वन्य प्राणियों का बसेरा है। साथ ही, यहाँ 56 प्रकार के वृक्षों की प्रजातियाँ पाई जाती हैं। पर्यावरण विशेषज्ञों ने चिंता जताई है कि बड़े पैमाने पर वनों की कटाई और खनन से न केवल जैव विविधता प्रभावित होगी, बल्कि नर्मदा नदी के जलस्त्रोत और भूजल स्तर पर भी विपरीत असर पड़ेगा।
याचिका में केंद्र और राज्य सरकार को पक्षकार बनाया गया है। न्यायालय ने मामले की गंभीरता को देखते हुए 10 नवंबर को संबंधित पक्षों से एफिडेविट दाखिल करने को कहा है। धर्म सम्राट स्वामी करपात्री जी महाराज कल्याण आश्रम ने भी वैज्ञानिक और धार्मिक आधार पर खनन के दुष्प्रभावों को रेखांकित करते हुए अदालत में हलफनामा प्रस्तुत किया है।
यह मामला विकास और पर्यावरण संरक्षण के बीच चल रही लगातार बहस को एक नया आयाम देता है। अब सभी की निगाहें अदालत के अगले फैसले पर टिकी हैं।
माननीय उच्च न्यायालय ने इस मामले को गंभीरता से लिया है। कोर्ट ने यूनियन ऑफ इंडिया को और मध्यप्रदेश शासन को $10$ नवंबर तक इस संबंध में एफिडेविट प्रस्तुत करने का निर्देश दिया है। यह कदम बताता है कि कोर्ट इस मामले को सिर्फ पर्यावरण तक सीमित न रखकर इसके धार्मिक और पारिस्थितिक महत्व को भी समझ रहा है।
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